इतिहास
पूर्वी उत्तर प्रदेश का सुप्रसिद्ध एवं औद्योगिक दृष्टि से समुन्नत जनपद मऊ का इतिहास काफी पुराना है। रामायण एवं महाभारत कालीन सांस्कृतिक एवं पुरातत्विक अवशेष इस भू-भाग में यत्र-तत्र मिलते हैं। यद्यपि इस दिशा में वैज्ञानिक ढंग से शोध एवं उत्खनन के प्रयास नहीं किये गये ह, लेकिन भौगोलिक एवं ऐतिहासिक साक्ष्यों तथा किवंदतियों के आधार पर इसकी पुष्टि होती है। कहा जाता है कि त्रेतायुग में महाराज दशरथ के शासनकाल में इस स्थान पर ऋषियों की तपोभूमि थी। इसी तमसा तट पर आदि कवि महर्षि वाल्मिकी का आश्रम था। यह तो निर्विवाद है कि वन यात्रा के समय प्रथम रात्रि तमसा तट पर श्री रामचन्द्र जी ने विश्राम किया था। मऊ का ज्ञात अभिलेखीय इतिहास लगभग 1500 वर्ष पुराना है, जब यह समूचा इलाका घोर घना जंगल था। यहाँ बहने वाली नदी के आस-पास जंगली व आदिवासी जातियाँ निवास करती थीं। यहाँ के सबसे पुराने निवासी नट माने जाते है। इस इलाके पर उन्हीं का शासन भी था।
तमसा तट पर हजारों वर्ष पूर्व बसे इस इलाके में सन् 1028 के आस-पास बाबा मलिक ताहिर का आगमन हुआ। वे एक सूफी संत थे और अपने भाई मलिक कासिम के साथ फौज की एक टुकड़ी के साथ यहाँ आये थे। इन लोगों का तत्कालीन हुक्मरा सैय्यद शालार मउऊद गाजी ने यहाँ इस इलाके पर कब्जा करने के लिये भेजा था। गाजी उस समय देश के अन्य हिस्सों पर कब्जा करता हुआ बाराबंकी में सतरिक तक आया था और वहाँ से उसने विभिन्न हिस्सों में कब्जे के लिये फौजी टुकडि़याँ भेजी थी।।
उन दिनों इस क्षेत्र में मऊ नट का शासन था। कब्जे को लेकर मऊ नट एवं मलिक बंधुओं के बीज भीषण युद्ध हुआ,जिसमें मऊ नट का भंजन(मारा गया) हुआ और इस क्षेत्र को मऊ नट भंजन कहा गया जो कालान्तर में मऊनाथ भंजन हो गया। मऊनाथ भंजन के इस नामकरण को लेकर भी कई विचार है। कुछ विद्वान इसे संस्कृत शब्द ‘‘मयूर’’ का अपभ्रंश मानते ह, तो कुछ इसे टर्की भाषा का शब्द मानते हैं। टर्की में ‘‘मऊ’’ शब्द का अर्थ है पड़ाव या छावनी। मऊ नाम की कई जगहें ह, लेकिन उनके साथ कुछ न कुछ स्थानीय विशेषण लगे हुए हैं जैसे- फाफामऊ, मऊ आईमा, जाज मऊ, मऊनाथ भंजन आदि।।
इस इलाके पर अपना वर्चस्व कायम करने के बाद बाबा मलिक ताहिर ने, आज जहाँ चैक है उसके उत्तर अपना केन्द्र बनाया जो आज भी मलिक ताहिरपुरा के नाम से जाना जाता हैै। इसी प्रकार उनके भाई मलिक कासिम ने चैक के दक्षिण को कासिमपुरा के नाम पर आबाद किया। मलिक ताहिर के फौज में शामिल ओहदेदार सिपाहियों ने कुछ-कुछ दूरी पर अपने-अपने नाम पर इलाकों को आबाद किया, जो आज भी हुसैनपुरा, बुलाकीपुरा, मिर्जाहादीपुरा, कासिमपुरा, मोहसिनपुरा, न्याज मुहम्मदपुरा, पठानटोला, आदि मुहल्लों के रूप में मौजूद हैं। मलिक भाइयों के आगमन के बाद यह इलाका धीरे-धीरे आबाद होता चला गया।।
मौर्य एवं गुप्त वंश के राजाओं का दीप निर्वाण होने के पश्चात् मुगल शासन काल में यह स्थान जौनपुर राज्य अन्तर्गत था। इसके पूर्व 1540-1545 के मध्य इस क्षेत्र में तत्कालीन बादशाह शेरशाह सूरी का आगमन दो बार हुआ। शेरशाह सूरी दरगाह में रह रहे सूफी संत मीराशाह से मिलने आया था। उसकी बेटी महाबानो मीराशाह के सानिध्य में ही रह रही थी। मऊ नगर का पुराना पुल जो 1956 की बाढ़ में धाराशाही हो गया, शेरशाह सूरी द्वारा ही बनवाया गया था। बताते हैं कि पुल निर्माण में देर हो जाने के कारण ही शेरशाह सूरी द्वारा पेशावार से कोलकाता तक बनवाया गया ऐतिहासिक मार्ग (ग्राण्ट टंक रोड) इधर से नहीं गुजर सका।।
सन् 1629 में मुगल बादशाह शाहजहाँ के शासन काल में यह इलाका उनकी लड़की जहाँआरा को मिला। नगर के वर्तमान स्वरूप की नींव जहाँआरा के शासन काल में ही पड़ी। जहाँआरा बेगम ने यहाँ कटरा में अपना आवास एवं शाही मस्जिद का निर्माण करवाया और उसकी सुरक्षा के लिए उसे फौजी छावनी में तब्दील कर दिया गया। फौज को रहने के लिये बनाई गयी बैरकों के अवशेष आज भी विद्यमान है। जहाँआरा ने शाही कटरा क्षेत्र में 16 से 17 फीट नीचे भूमिगत सुरंग भी बनवाया था, जिसके अवशेष आज भी जमीन के अन्दर खुदाई के दौरान यत्र-तत्र पाये जाते हैं। गत् वर्ष स्थानीय नगर पालिका के कटरा क्षेत्र के जिन दो स्थानों पर नलकूप की बोरिंग करायी गयी वह 17-18 फीट जाकर फेल हो गयी। कटरे में शाही कोठरियां के दक्षिण-पश्चिम भाग में शाही परिवार का आवास था। यहाँ इमाम खाना का अवशेष पिछले दिनों तक था। शाही परिवार के साजो-सामान खच्चरों पर लाद कर यहाँ लाये गये थे। इन्हें लाने वालों की पीढ़ी आज भी यहाँ आबाद है और खच्चरों से ही ढुलाई का काम करके अपना जीवन यापन करती है। मुगल परिवार के साथ मजदूर, कारीगर व अन्य प्रशिक्षित श्रमिक भी आये थे, जिन्होंने यहाँ बुनाई कला को जन्म दिया। हथकरघा बुनाई से सम्बद्ध सूत कातने वाले लोग यहाँ गोरखपुर से आकर आबाद हुए। उनके रहने के लिए दो मुहल्ला कतुआपुरा पूरब व कतुआपुरा पश्चिम बनाया गया। बताते हैं कि भाई औरंगजेब के नाम पर बेगम जहाँआरा ने एक नया मुहल्ला औरंगाबाद आबाद किया तथा मऊनाथ भंजन का नाम अपने नाम पर जहाँनाबाद कर दिया, लेकिन यह नाम लोकप्रिय न हो सका और मऊनाथ भंजन उत्तरोत्तर प्रगति करता रहा।।
उल्लेखनीय है कि जहाँआरा बेगम जब यहाँ नव निर्माण करा रही थी तो उनके साथ मजदूरों के अतिरिक्त जो लोग यहाँ आये उनमें अधिकांश दस्तकार थे और उनमें मुख्य वर्ग कपड़ा बनाने वालों का था जो यहाँ स्थायी रूप से आबाद हो गये। यहाँ आये अधिकांश दस्तकार ईरानी, अफगानी अथवा तुर्की मूल के थे। मऊ की स्थानीय भाषा जो अपने ढंग से निराली मानी जाती है, में अधिकांश शब्द फारसी, तुर्की व ईरानी भाषा के पाये जाते ह, जो आज अपना वास्तविक अर्थ खो चुके हैं।
अठ्ठारहवीं शताब्दी के आरम्भ में जौनपुर के शासन से पृथक करके इस भू-भाग को आज़मगढ़ के राजा आजमशाह को दे दिया गया। आजमशाह और अजमत शाह दोन सगे भाई थे। आजमशाह ने आज़मगढ़ अजमत शाह ने अजमतगढ़ बसाया।।
सन् 1801 में आज़मगढ़ और मऊनाथ भंजन ईस्ट इंडिया कम्पनी को मिले और यह क्षेत्र गोरखपुर जनपद में शामिल कर लिया गया। सन् 1932 में आज़मगढ़ स्वतन्त्र जिला बनाया गया जो स्वाधीनता के बाद 1988 तक कायम रहा। पूर्ववर्ती जिला आजमगढ़ जनपद में सबसे अधिक राजस्व की प्राप्ति मऊ से होती थी, किन्तु इसके विकास का प्रयास नगण्य था। जनपद मुख्यालय यहाँ से 45 कि0मी0 दूर होने के कारण यहाँ के लोगों को भारी असुविधा का सामना करना पड़ता था। मऊ को जनपद बनाने की मांग कई वर्षों से होती रही जो अन्ततः 19 नवम्बर,1988 को पूरी हुई और प्रदेश के मानचित्र में एक अलग जनपद के रूप में मऊ का सृजन हुआ।।
सन् 1988 में नया जनपद बनने के बाद इस भू-भाग का कायाकल्प हो गया तथा यह जनपद निन्तर प्रगति के पथ पर अग्रसर है।।
श्री कल्पनाथ राय, पूर्व सांसद ने मऊ जिले के निर्माण में एक महत्वपूर्ण भूमिका निभाई थी |