सांस्कृतिक चेतनाः-
ज्ञान वट के पुष्प का ही तो नाम संस्कृति है। लक्कड़ बजा-बजा कर लोकगीत गाते नवयुवक, नाट्य मण्डलियों के राष्ट्रीय और सांस्कृतिक नाटक, विविध गोष्ठियाँ, निरन्तर 20 वर्षों तक चलने वाला हरि कीर्तन, सबके जनमानस की भावनाओं को पुष्ट करते हुए विविध धुनियों का ध्वनियों से रस-सिक्त करते है। सहयोग, स्नेह, सत्कार्य और सुव्यवहार तो यहाँ की अपनी परम्परा है।
लोग इसे भगवान विष्णु की मूर्ति भी बताते है।
दरगाह में मीरा षाह की ऐतिहासिक मजारः-
जनपद की नवसृजित तहसील मधुबन से 05 कि0मी0 दूर मधुबन-दोहरीघाट मार्ग पर स्थित दरगाह कस्बे के उत्तर एक मजार है। यहाँ पहुँचने वाले हर व्यक्ति का सिर श्रद्धा से झुक जाता है। यहाँ लोग मीरा शाह के किसी सैय्यद की मजार के समक्ष श्रद्धानत होते हैं, मिन्नते मांगते है और वापस लौट जाते है। लेकिन सैय्यद मीरा शाह कौन थे? यह अभी भी बहुत कम लोग जानते हैं।
इस मजार और दरगाह के इतिहास को जानने के लिए 10वीं और 11वीं शताब्दी की ओर लौटना होगा। इस संदर्भ में शेख वजेहुद्दीन अशरफ लखनौरी द्वारा लिखित मशहूर फारसी पुस्तक ‘‘बहरेजख्वार’’ में काफी कुछ सामग्री मिलती है। पुस्तक में वर्णित तथ्यों के अनुसार दरगाह में उन्हीं सैय्यद मीरा शाह की मजार है, जिनके आशीर्वाद से तैमूरलंग को सात पीढ़ी तक शासन का अवसर मिला था। इतना ही नहीं दिल्ली के सम्राट शेरशाह सूरी को भी मीराशाह का आशीर्वाद प्राप्त था।
मीराशाह का पूरा नाम ‘‘हजरत सैय्यद अहमद वादपां’’ है। इन्होंने कोल्हुआवन दरगाह में आकर अपना आसन जमाया और लोगों के बीच प्रतिष्ठित हो गये। इनकी प्रसिद्धि दूर-दूर तक फैल गयी। दूर-दूर से राजा-महाराजा प्रभावित होकर मीराशाह के शिष्य बनने लगे। लिपिबद्ध किवंदतियों के अनुसार मीरा शाह हजरत बदेउद्दीन कुतुब मदार के शिष्य थे। ऐसा कहा जाता है कि एक बार ये समरकंद होते हुए भारत आ रहे थे। मार्ग में इन्होंने खाना-पीना छोड़ दिया था। इस बात का पता जब इनके गुरू कुतुब मदार को लगा तो उन्होंने इन्हें बताया कि तुम दक्षिण दिशा की ओर जाओ, वहाँ तुम्हें पानी का एक झरना मिलेगा और उसके किनारे हरे-भरे पेड़ मिलेंगे। पेड़ों की छाया में एक व्यक्ति अपने सात मित्रों का इंतजार कर रहा होगा उसके पास सात व्यक्तियों का भोजन है और वह भोजन तुम्हारे नाम का है। तुम अल्लाह का नाम लेकर भोजन करना और उसे सात पुस्तों का राज या सात देशों का राजा बनने का आशीर्वाद देना। हुआ भी ऐसा ही जब मीरा शाह वहाँ पहुँचे तो उन्हें एक व्यक्ति ने भोजन कराया और शाह ने वैसा ही आर्शीवाद दिया। यह व्यक्ति तैमूर लंग था
एक अन्य प्रकरण में अपनी विमाता के दुव्र्यहार से क्षुब्ध होकर शेरशाह सूरी भी सैय्यद मीराशाह की शरण में आया और अपना दुख-दर्द सुनाकर दुआ के लिए प्रार्थना की। वह सैय्यद के सामने खड़ा था। बड़ी देर बाद सैय्यद ने उसकी ओर देखा और कहा बैठ जाओ। किन्तु वह खड़ा ही रहा। दो बार ऐसा ही हुआ, जब तीसरी बार शेरशाह सूरी नहीं बैठा तब सैय्यद ने गुस्से में बैठने अथवा चले जाने के लिए कहा। डर के मारे काँपते हुए शेरशाह बैठ गया। तब सैय्यद ने कहा जाओ, तुम्हारी जागीर फिर मिल जायेगी और तुम हिन्दुस्तान के बादशाह भी बन जाओगे। उन्होंने शेरशाह को कुछ शिक्षा दी और उसे वापस जाने के लिए कहा। उन्होंने यह भी कहा कि तुम अपनी पहली सन्तान हमारी सेवा में दे देना।
बादशाह बनने के बाद शेरशाह उनकी शर्त पूरी की। उसने यहाँ रौजे का निर्माण कराया, उसके चारो ओर पुख्ता दीवाल बनायी गयी। दीवाल के चारो कोनों पर मीनार बनायी गयी। बीच में मीरा शाह के लिए एक चबुतरा बना। रौजा के पूर्वी ओर एक तालाब है, जिसमें एक सोता द्वारा पानी गिरता रहता है। यह तालाब कभी सुखता नहीं है। तालाब के विषय में लोगों का कहना है कि सैय्यद साहब दातून करके गाड़ दिये और वहाँ से पानी का सोता फूट पड़ा जो आज भी जारी है। पाताल गंगा के नाम से प्रचलित इस सोते के जल से लोग वजू करते है, मवेशी पानी पीते है तथा कुत्ता काटने पर इसे लगाकर लोग निरोग होते है।
शेरशाह ने मीराशाह की सेवा में अपनी पुत्री माहबानो को भेजा। ये किले में ठहरी और पूजा-अर्चना करने में लीन हो गयी। शेरशाह अपनी पुत्री के साथ सात सप्ताह तक वहाँ रूका रहा। तभी से यहाँ क्रमशः ज्येष्ठ मास के आखिरी वृहष्पतिवार से सात वृहस्पतिवार तक एक विशाल मेला लगता है। यहाँ माहबानों की मजार आज भी मौजूद है। जिस चबूतरे पर मीराशाह बैठते थे वह चबूतरा भी है, किन्तु किले की दीवार जर्जर हो चुकी है। क्षेत्रीय लोगों का मानना है कि मीराशाह आज भी हर रात अपने चबूतरे पर बैठते हैं। मीरा शाह के लम्बे जीवनकाल को लेकर तरह-तरह की कहानी प्रचलित है। यहाँ हर वर्ग के लोग आते हैं, और मनौती मांगते है तथा चादर चढ़ाते है। यहाँ आने वालों को सकून मिलता है और सुख-शान्ति की अनुभूति होती है।
बाबा सरयूदास अनाथाश्रमः-
जनपद मऊ सदैव से ऋषियों-महर्षियों, साधू-महात्मा एवं संत पुरूषों की धर्मस्थली रही है। यहाँ ऋषियों-मुनियों व साधु-संतों ने धार्मिक उपदेशों के साथ-साथ जनसेवा की है तथा इस अंचल को अपनी कर्मभूमि बनाया। जनपद के विभिन्न अंचलों में इस तरह के स्थान है। ऐसा ही एक स्थान है करजौली जो बाबा सरयू दास की कर्मस्थली रहा।
मऊ-आज़मगढ़ मार्ग पर खुरहट से आगे मुख्य मार्ग से लगभग पाँच किलोमीटर दूर करजौली को सुप्रसिद्ध संत बाबा सरयूदास ने अपनी साधना स्थली बनाया था। मानव मात्र को प्रेम-सहयोग एवं सत्संग का संदेश देता अनाथाश्रम पिछले लगभग एक सौ वर्ष से संचालित है। आश्रम की 100 एकड़ भूमि में स्थानीय लोगों के कब्जे से अवशेष बची 56 एकड़ भूमि का जनहित में प्रयोग किया जा सकता है।
ऐतिहासिक गाँव सूरजपुरः-
राजसी संस्कृति और जमींदारी ठाट-बाठ की आबो-हवा में रचा बसा ऐतिहासिक गांव सूरजपुर अपने अतीत के चलते आज भी चर्चा का केन्द्र है। ऐतिहासिकता की दृष्टि से सूरजमल शाह के नाम पर बसा जमींदारों का यह गांव अपने खान-पान और रहन-सहन से राजघरानों के समकक्ष हुआ करता था। अपने अतीत की चर्चा से बरबस ही कौतूहल पैदा कर देता है। किवंदन्ती के अनुसार सूरजपुर अयोध्या की अंतिम सीमा थी। यहीं पर अयोध्या के दसवां फाटक स्थित था,जिसे अलफटकी घाट कहा जाता हैं यहीं से दशरथ जी ने श्रवण कुमार को तीर मारा था। बताते हैं कि फटकी घाट से ही दस कदम दूर एक पीपल का वृक्ष है,जहाँ श्रवण के अंधे माता-पिता ने श्रवण वियोग में दशरथ को श्राप देकर दम तोड़ दिया था।
कालान्तर में यह स्थान अंधरा कुण्ड के नाम से विख्यात हो गया। यहाँ से एक किलोमीटर दूर दक्षिण-पश्चिम के कोने पर एक आबे-हिरन था। जहाँ जंगल के जीव-जंतु पानी पीते थे। यहीं श्रणव ने प्यासे माता-पिता को पानी पिलाने के लिए कमण्डल डुबोया था, कि आवाज सुनकर दशरथ ने तीर चला दिया। आबे-हिरन का नाम बदलते हुए अब अभिरन के नाम से जाना जाने लगा है। यद्यपि यह स्थान बहुत ही महŸवपूर्ण है लेकिन बड़े पैमाने पर इसकी चर्चा न हो पाने के कारण ग्रामवासियों की किवंदन्तीयों तक ही सिमट कर रह गया है। यहाँ पीपल का वह वृक्ष अब भी विद्यमान है जहाँ अन्धी-अन्धा ने दम तोड़ा था। दशरथ जी ने जहाँ से तीर चलाया था उस स्थान का नाम ‘‘सर-छोड़ा’’ पड़ा किन्तु अब वह सरफोरा के नाम से जाना जाने लगा है। रामायण की गाथाओं में राम वन गमन प्रसंग अंधी-अंधा के शाप का ही परिणाम रहा है और उसकी पृष्ठभूमि सूरजपुर में ही रची गयी।
सूरजपुर के ऐतिहासिक अतीत की ओर किसी इतिहासविद् का ध्यान न जाना ही ऐसे प्रसंगों की उपेक्षा का कारण रहा है। वैसे भी इस गांव का अतीत एवं गौरवमयी इतिहास ही है क्योंकि आजादी की लड़ाई में भी इस गांव का कम योगदान नहीं रहा हैं इस गांव के लोगों पर अनगिनत बार ब्रिटिशिया दमन हुआ और आजादी के दीवाने ने बड़ी से बड़ी कुर्बानी दी थी। यहीं के लोगों ने छिछोर टेªन डकैती कांड में अपनी प्रमुख भूमिका निभायी थी जिसका नेŸाृत्व कामरेड जय बहादुर सिंह ने किया था। आजाद हिन्द फौज के लेफ्टीनेन्ट चन्द्रदेव राय इसी गांव के थे जिनकी बहादुरी के चर्चे आज भी हुआ करते हैं।
साम्प्रदायिक सद्भाव का प्रतीक परहेजी बाबा की मजारः-
रहिमन संगत साधु की, ज्यों गन्धी का वास। जो कुछ गंधी दे नहीं, तो भी बास सुवास।।
भक्त कवि रहीम की उक्त पंक्तियाँ जीवंत हो उठती है सूफी संत परहेजी बाबा के मजार के सानिध्य में आते ही। बाबा के मजार के चारो तरफ फैला शांति-सद्भाव का आभामय वातावरण दर्शनार्थियों के नेक नीयत एवं शांति की अद्भुत भावना का संचार करता है। प्रेम-भक्ति, विश्वास और शांति का संदेश देती परहेजी बाबा की मजार सम्भवतः हिन्दुस्तान की पहली किसी सिद्ध पुरुष की मजार होगी जिसके बगल में एक हिन्दू बालक की भी मजार बनी हुई है। बाबा के साथ-साथ हिन्दू बालक की मजार पर भी लोग मत्था टेकते हैं और मन्नते मानते है।
लगभग 500 वर्ष पूर्व इस क्षेत्र को अपनी साधना स्थली बनाने वाले परहेजी बाबा के नाम विख्यात सूफी संत सैय्यद नूर मुहम्मद पवित्र शहर मक्का से लगभग 600 वर्ष पूर्व अपने सहयोगियों के साथ चले और हिन्दुस्तान में घूमते-घूमते इस सघन वन व ताल क्षेत्र को अपनी कर्मस्थली बना लिया जहाँ इन्होंने अपनी इहलीला का समापन किया था।
जनपद मुख्यालय से लगभग 30 किलोमीटर दूर शहीद मार्ग जहाँ मधुबन-बेल्थरा मार्ग को जोड़ता है वहीं से कुछ ही दूरी पर पूरब तरफ मुख्य मार्ग के निकट ही पावन तालाब(तालरतोय) के किनारे स्थित है सूफी संत परहेजी बाबा की मजार।
सैय्यद नूर मुहम्मद की ख्याति उनके यहाँ आने के साथ ही दूर-दूर फैलनी शुरू हो गयी थी। वे अपना अधिकांश समय खुदा की ईबादत व दीन दुखियों की सेवा में लगाते थे। सभी दुर्गुणों-व्यसनों व तामसिक प्रवृŸिायों से पूरी तरह परहेज रखने के कारण ही सैय्यद नूर मुहम्मद साहब कालांतर में परहेजी बाबा के रूप में ख्याति प्राप्त हुए। खुदा की इबादत एवं लोक मंगल यह दो ही काम परहेजी बाबा के सामने थे। वे अपने कामों के प्रति इस हद तक दीवाने हो जाते थे कि उन्हें अपनी सुधि-बुधि ही नहीं रह जाती। उनके मस्तानेपन व दीवानगी को देखते हुए आस-पास के लोग उन्हें दीवाने बाबा के रूप में भी प्रेम व श्रद्धा से पुकारते थे। परहेजी बाबा के लोक कल्याण के हजारो किस्से व उनकी दैवीय शक्तियों का बखान करने वाली किवंदन्तीयाँ आस-पास के लोग बड़े ही मनोयोग से एक दूसरे को सुनते सुनाते हैं। जनश्रुति के अनुसार अपने जीवन काल में परहेजी बाबा ने कभी अपने दरबार में आने वाले मुरीद को निराश नहीं किया था।
आज भी बाबा की मजार पर पहुँचने वालों को उनका आशीर्वाद मिलता है, हृदय से मांगी गयी लोगों की मुराद पूरी होती है। यूँ तो यहाँ प्रत्येक वृहष्पतिवार को मेला लगता है लेकिन ईद के दूसरे दिन लगने वाले उर्स का ऐतिहासिक महत्व है। आस-पास के मल्लाह विरादरी के लोगों द्वारा चुने हुए दिनों में यहाँ लंगर चलाने की परम्परा आज भी कायम है। बाबा की मजार पर मत्था टेकने पर असीम शांति व सुकुन की अनुभूति होती है।
इसके अतिरिक्त मधुबन थानान्तर्गत ग्राम उन्दुरा में भी दो सुप्रसिद्ध मुस्लिम संतों की मजार है जो श्रद्धालुओं को पारलौकिक कष्टों से मुक्ति दिलाती है। शाह मुहम्मद मोइनुद्दीन रहमतुल्लाह व शाह मुहम्मद मुख्तार अहमद रहमतुल्लाह की मजार पर भूत-प्रेत व शाप ग्रस्त लोगों को शांति मिलती है। यहाँ काफी दूर-दूर से लोग आते हैं।
मऊ की संस्कृति में समाहित बुनाई कला
मऊ और बुनाई कला एक दूसरे के पूरक हैं। मऊ आज उत्कर्ष एवं समृद्धि के जिस पायदान पर खड़ा है, उसका आधार बुनकर ही हैं। साडि़यों की बुनाई यहाँ के नागरिकों की पहचान बन चुकी है। बुनाई कला इस क्षेत्र के आबो-हवा में घुलकर यहाँ की संस्कृति में समाहित हो चुकी है।
इस क्षेत्र में बुनाई का उद्भव मुगल सम्राट जहाँगीर काल में हुआ। जैसे-जैसे समय बीतता गया यह कला फलते-फूलते स्थानीय अल्पसंख्यकों की परम्परागत कला के रूप में विख्यात हुई। पूर्वी उत्तर प्रदेश में हथकरघा से कपड़ा बुनने की शुरूआत मऊ से ही हुई और धीरे-धीरे अन्य शहरों में फैलती गयी। मऊ में इसका प्रारम्भ 16वीं शताब्दी से माना जाता है। उस समय यहाँ तानसेन नामक बुनकर ने करघे पर बहुत ही सुन्दर कपड़े का उत्पादन किया था। धीरे-धीरे अन्य लोगों ने यह हुनर सीखा और आज तो यह यहाँ का गृह उद्योग है। नगर अथवा आस-पास के मुस्लिम परिवारों में शायद ही कोई ऐसा घर हो जिसमें आधुनिक शक्तिचालित करघा न लगा हो। एक अनुमान के अनुसार नगर में लगभग 85 हजार लूम चल रहे हैं। इसके अलावा कोपागंज, अदरी, पूराघाट, घोसी, मधुबन, मुहम्मदाबाद गोहना, खुरहट, खैराबाद, करहां, पिपरीडीह, बहादुरगंज, मुबारकपुर आदि क्षेत्रों को मिला दिया जाये तो लाखों करघे दिन-रात चलते हैं।
मऊ की बनी साडि़यों की देश-विदेश में अलग पहचान है। साडि़यों पर आकर्षक व कलात्मक कढ़ाई देखते ही बनती है। अपने आकर्षण के आगे बनारसी साडि़याँ का मुकाबला करने वाली साडि़याँ सर्वसाधारण के लिए सुलभ है। साडि़यों के अतिरिक्त विभिन्न प्रदेशों जैसे-असम, बंगाल महाराष्ट्र आदि के पारम्परिक परिधान भी यहाँ निर्मित होते हैं। उल्लेखनीय है कि 1957 में यहाँ आये प्रधानमंत्री पं0 जवाहर लाल नेहरू यहाँ की कला एवं वस्त्रोद्योग की भूरि-भूरि प्रशंसा करते हुए भारत का मैनचेस्टर कहा था। बहुत हद तक इस क्षेत्र के बुनकरों ने अपनी लगन व मेहनत से नेहरू जी के सपने को साकार किया। यहाँ की बहुसंख्य आबादी बुनाई का कार्य करती है। यह कार्य पीढ़ी दर पीढ़ी करते आ रहे लोगों की आजीविका का एकमात्र साधन भी है। इस कला के कारण ही यहाँ बेरोजगारी भी अपेक्षाकृत कम है तथा लोग खुशहाल भी है।
मऊनाथ भंजन के रघुनाथपुरा, मुंशीपुरा, खीरीबाग, कियारी टोला, भिखारीपुर, बुलाकीपुरा, पठानटोला, प्यारेपुरा, मिर्जाहादीपुरा, डोमनपुरा, इस्लामपुरा, जमालपुरा, मदनपुरा, मलिकताहिर पुरा, कासिमपुरा, हसनमखासानी, हट्ठीमदारी, मुगलपुरा, दक्षिण टोला, अलाउद्दीनपुरा, इमामगंज, हरिकेशपुरा आदि मुहल्ले बुनाई के साधन केन्द्र है।